Thursday, April 10, 2014

ग़ज़ल: जुस्तजू

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कुछ तो लोगों का ख्याल कर लेते हैं
तेरे रकीब से ही बात कर लेते हैं

तनहा रास्तों से घबराना क्या
हम दरख्तों से बात कर लेते हैं

दर्द और ज़ख्म सब अपनी जगह
हम इसीको मरहम का नाम देते हैं


बिना ज़रुरत के तो पाँव भी नहीं हिलाते
शौकिया नहीं सिर्फ भूख में शिकार का दम लेते हैं

तुम से मिलने की अब भी जुस्तजू है
चले कई बार पर रस्ते ही मुकाम बदल लेते हैं

ज़मीन लपकने को कितने आतुर हैं
सूखे पत्ते शाख से आखिरी उड़ान लेते हैं






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